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बस एक जिस्म एक ही क़द में पड़ा रहूँ | शाही शायरी
bas ek jism ek hi qad mein paDa rahun

ग़ज़ल

बस एक जिस्म एक ही क़द में पड़ा रहूँ

अंजुम सलीमी

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बस एक जिस्म एक ही क़द में पड़ा रहूँ
बेहद हूँ मैं तो क्यूँ किसी हद में पड़ा रहूँ

सुब्ह-ए-अज़ल है कब से मिरे इंतिज़ार में
जी चाहता है ताक़-ए-अबद में पड़ा रहूँ

इक रोज़ तंग आ के मुझे सोचना पड़ा
कब तक मैं अपनी सोहबत-ए-बद में पड़ा रहूँ

आगे निकलता जाता हूँ मैं अपने-आप से
अब दर-गुज़र करूँ कि हसद में पड़ा रहूँ

बे-सूद हो गया हूँ तो हासिल कहाँ गया
ऐ असल ज़र मैं कौन सी मद में पड़ा रहूँ