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बस एक बार फ़क़त एक बार कम से कम | शाही शायरी
bas ek bar faqat ek bar kam se kam

ग़ज़ल

बस एक बार फ़क़त एक बार कम से कम

शमीम अब्बास

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बस एक बार फ़क़त एक बार कम से कम
सिवा मिरा हो तिरा इख़्तियार कम से कम

हर एक रंग तुझे ढाँप दूँगा सर-ता-पा
तिरी हर एक का बदला हज़ार कम से कम

न साथ साथ सही इतनी दूर भी तो न जा
उजाड़ मत मिरे क़ुर्ब-ओ-जवार कम से कम

है इत्तिफ़ाक़ कि इंसान निकले दोनों ही
हुज़ूर-ए-वाला बहुत ख़ाकसार कम से कम

यूँ अपनी साख बचाई किया उसे उर्यां
कि अपना शेवा नहीं तू-तकार कम से कम

सभी हैं राम भरोसे ख़ुदा की बस्ती में
कोई तो ख़ुद पे करे इंहिसार कम से कम

शिकस्त पर कोई नौहा न फ़तह पर नारा
न ज़िंदगी से हो उतना फ़रार कम से कम