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बस और क्या कहूँ इस सिलसिला में तौबा है | शाही शायरी
bas aur kya kahun is silsila mein tauba hai

ग़ज़ल

बस और क्या कहूँ इस सिलसिला में तौबा है

नज़ीर मुज़फ़्फ़रपुरी

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बस और क्या कहूँ इस सिलसिला में तौबा है
मुझे जो पहुँचा है दुख दोस्तों से पहुँचा है

मिरे वजूद से हैरत में है मुफ़स्सिर-ए-अक़्ल
वो राज़ हूँ जो न मस्तूर है न इफ़्शा है

मुझे हयात से है इस लिए भी दिलचस्पी
ये एक दिन का नहीं उम्र-भर का सौदा है

वो तेरे लुत्फ़-ए-तबस्सुम की नग़्मगी ऐ दोस्त
कि जैसे क़ौस-ए-क़ुज़ह पर सितार बजता है

ये ज़िंदगानी इबारत ख़लिश से है या'नी
ख़लिश जो है तो चमन है नहीं तो सहरा है

हैं तेरी इश्वा-गरी के ये मुख़्तलिफ़ पहलू
कलीसा क्या है हरम क्या है बुत-कदा क्या है

'नज़ीर' क़िस्सा-ए-ज़ख़्म-ए-निहाँ कहूँ किस से
ये दास्तान-ए-अलम सख़्त रूह-फ़र्सा है