बरतर समाज से कोई फ़नकार भी नहीं
फ़नकार क्या जो साहब-ए-किरदार भी नहीं
हर चंद जाँ-बलब हैं सितम से शरीफ़ लोग
लड़ने को ज़ुल्म से कोई तय्यार भी नहीं
नस्ल-ए-जवाँ सवार है ख़्वाबों की नाव में
उस पर सितम कि हाथ में पतवार भी नहीं
खोटा टका हूँ फिर भी कभी काम आऊँगा
मुझ को न फेंक इतना मैं बे-कार भी नहीं
उर्दू ज़बान की मैं वो कोहना किताब हूँ
जिस का वतन में कोई ख़रीदार भी नहीं
हम ऐ 'शबाब' ऐसे मुक़द्दर का क्या करें
ख़्वाबीदा जो नहीं है तो बेदार भी नहीं
ग़ज़ल
बरतर समाज से कोई फ़नकार भी नहीं
शबाब ललित