EN اردو
बरसों तिरी तलब में सफ़ीना रवाँ रहा | शाही शायरी
barson teri talab mein safina rawan raha

ग़ज़ल

बरसों तिरी तलब में सफ़ीना रवाँ रहा

हसन अख्तर जलील

;

बरसों तिरी तलब में सफ़ीना रवाँ रहा
ऐ मेरे मेहरबान भँवर तू कहाँ रहा

उन से मिली नज़र तो पलट कर न आ सकी
वो रिश्ता-ए-निगाह भी कब दरमियाँ रहा

कब उम्र-ए-ख़िज़्र ख़ंदा-ए-गुल का जवाब है
याँ दो घड़ी में उम्र-ए-अबद का समाँ रहा

मैं भी तिरे बग़ैर न आराम पा सका
तू भी मिरी तलाश में बे-ख़ानमाँ रहा

मुझ को गिला है तब-ए-मुरव्वत-शिआर से
साग़र-ब-दस्त हो के भी तिश्ना वहाँ रहा

ऐ दौर-ए-चर्ख़ अब कोई तदबीर और कर
तेरी सितमगरी पे तो मैं शादमाँ रहा

मुझ को 'जलील' कौन कहेगा शिकस्ता-दिल
खाया था एक ज़ख़्म सो वो बे-निशाँ रहा