बरसों तिरी तलब में सफ़ीना रवाँ रहा
ऐ मेरे मेहरबान भँवर तू कहाँ रहा
उन से मिली नज़र तो पलट कर न आ सकी
वो रिश्ता-ए-निगाह भी कब दरमियाँ रहा
कब उम्र-ए-ख़िज़्र ख़ंदा-ए-गुल का जवाब है
याँ दो घड़ी में उम्र-ए-अबद का समाँ रहा
मैं भी तिरे बग़ैर न आराम पा सका
तू भी मिरी तलाश में बे-ख़ानमाँ रहा
मुझ को गिला है तब-ए-मुरव्वत-शिआर से
साग़र-ब-दस्त हो के भी तिश्ना वहाँ रहा
ऐ दौर-ए-चर्ख़ अब कोई तदबीर और कर
तेरी सितमगरी पे तो मैं शादमाँ रहा
मुझ को 'जलील' कौन कहेगा शिकस्ता-दिल
खाया था एक ज़ख़्म सो वो बे-निशाँ रहा
ग़ज़ल
बरसों तिरी तलब में सफ़ीना रवाँ रहा
हसन अख्तर जलील