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बरसों पढ़ कर सरकश रह कर ज़ख़्मी हो कर समझा मैं | शाही शायरी
barson paDh kar sarkash rah kar zaKHmi ho kar samjha main

ग़ज़ल

बरसों पढ़ कर सरकश रह कर ज़ख़्मी हो कर समझा मैं

बाक़र मेहदी

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बरसों पढ़ कर सरकश रह कर ज़ख़्मी हो कर समझा मैं
हर कूचा है कूचा-ए-क़ातिल ज़ख़्मी हो कर सँभला मैं

तूफ़ानी जज़्बों से बच कर दूर तलक कैसे जाता?
एक जज़ीरा बन कर आख़िर लहरों लहरों ठहरा मैं

कितने आदर्शों के शीशे रग रग में आज़ार बने
लड़ते लड़ते थक कर देखा साया था और तन्हा मैं

आईना क्या किस को दिखाता गली गली हैरत बिकती थी
नक़्क़ारों का शोर था हर सू सच्चे सब और झूटा मैं

'बाक़र' तेज़ शुआओं से सब मोमी चेहरे पिघल गए
सुब्ह तलक पथरीले ग़म थे और था टूटा-फूटा मैं