बरसों जुनूँ सहरा सहरा भटकाता है
घर में रहना यूँही नहीं आ जाता है
प्यास और धूप के आदी हो जाते हैं हम
जब तक दश्त का खेल समझ में आता है
आदत थी सो पुकार लिया तुम को वर्ना
इतने कर्ब में कौन किसे याद आता है
मौत भी इक हल है तो मसाइल का लेकिन
दिल ये सुहुलत लेते हुए घबराता है
इक तुम ही तो गवाह हो मेरे होने के
आईना तो अब भी मुझे झुटलाता है
उफ़ ये सज़ा ये तो कोई इंसाफ़ नहीं
कोई मुझे मुजरिम ही नहीं ठहराता है
कैसे कैसे गुनाह किए हैं ख़्वाबों में
क्या ये भी मेरे ही हिसाब में आता है
ग़ज़ल
बरसों जुनूँ सहरा सहरा भटकाता है
शारिक़ कैफ़ी