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बरसों जो नज़र तूफ़ानों के आग़ोश में पलती रहती है | शाही शायरी
barson jo nazar tufanon ke aaghosh mein palti rahti hai

ग़ज़ल

बरसों जो नज़र तूफ़ानों के आग़ोश में पलती रहती है

मुग़ीसुद्दीन फ़रीदी

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बरसों जो नज़र तूफ़ानों के आग़ोश में पलती रहती है
उस मस्त नज़र की हर जुम्बिश अफ़्साने उगलती रहती है

जो तर्क-ए-तलब से पहले था दिल का वही आलम आज भी है
आईना नहीं बदला जाता तस्वीर बदलती रहती है

जी भर के उसे देखा लेकिन अब तक ये नज़र भरती ही नहीं
मासूम अदा में रह रह कर इक बात निकलती रहती है

तू मेरे जुनूँ से नालाँ है इस पर तो नज़र कर ऐ नासेह
वो ज़ुल्फ़ ख़ुद अपने हल्क़ों के अंदाज़ बदलती रहती है

मय-ख़ाना 'फ़रीदी' क्या जाने किस को न मिली किस ने पी ली
साग़र हैं कि चलते रहते हैं सहबा है कि ढलती रहती है