बरसात का उधर है दिमाग़ आसमान पर
छप्पर इधर नहीं है हमारे मकान पर
मस्जिद में उस को देख के हैरान रह गया
तन्क़ीद कर रहा था जो कल तक अज़ान पर
काग़ज़ के बाल-ओ-पर पे भरोसा न कीजिए
जाना अगर है आप को ऊँची उड़ान पर
अब तक रमक़ हयात की पैदा न हो सकी
क्या मैं लहू छिड़कता रहा हूँ चटान पर
दो चार हाथ उड़ के ज़मीं पर जो आ गए
तन्क़ीद कर रहे हैं हमारी उड़ान पर
जेहल-ए-ख़िरद ने तोड़ दीं सब बंदिशें 'शहूद'
'नासिख़' का अब इजारा नहीं है ज़बान पर
ग़ज़ल
बरसात का उधर है दिमाग़ आसमान पर
शहूद आलम आफ़ाक़ी