बरपा तिरे विसाल का तूफ़ान हो चुका
दिल में जो बाग़ था वो बयाबान हो चुका
पैदा वजूद में हर इक इम्कान हो चुका
और मैं भी सोच सोच के हैरान हो चुका
पहले ख़याल सब का था अब अपनी फ़िक्र है
दामन कहाँ रहा जो गरेबान हो चुका
तुम ही ने तो ये दर्द दिया है जनाब-ए-मन
तुम से हमारे दर्द का दरमान हो चुका
जो जश्न-वश्न है वो हिसार-ए-हवस में है
ये आरज़ू का शहर तो वीरान हो चुका
औरों से पूछिए तो हक़ीक़त पता चले
तन्हाई में तो ज़ात का इरफ़ान हो चुका
इक शहरयार शहर-ए-हवस को भी चाहिए
और मैं भी आशिक़ी से परेशान हो चुका
कितने मज़े की बात है आती नहीं है ईद
हालाँकि ख़त्म अर्सा-ए-रमज़ान हो चुका
मौसम ख़िज़ाँ का रास कब आया हमें 'शुजाअ'
जब आमद-ए-बहार का एलान हो चुका
ग़ज़ल
बरपा तिरे विसाल का तूफ़ान हो चुका
शुजा ख़ावर