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बरहम-ज़न-ए-शीराज़ा-ए-अय्याम हमीं हैं | शाही शायरी
barham-zan-e-shiraaza-e-ayyam hamin hain

ग़ज़ल

बरहम-ज़न-ए-शीराज़ा-ए-अय्याम हमीं हैं

अली जव्वाद ज़ैदी

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बरहम-ज़न-ए-शीराज़ा-ए-अय्याम हमीं हैं
ऐ दर्द-ए-मोहब्बत तिरा अंजाम हमीं हैं

इस क़ाफ़िला-ए-शौक़ में ये वहम है सब को
आवारा-ओ-सरगश्ता-ओ-नाकाम हमीं हैं

होंगे कई गर्दन-ज़दनी और भी लेकिन
इस शहर-ए-निगाराँ में तो बदनाम हमीं हैं

हम धूप में तपते तो पनप जाते मगर अब
दरयूज़ा-गर-ए-मेहर-ए-लब-ए-बाम हमीं हैं

क्या आन थी नाकामी-ए-तदबीर से पहले
अब लाएक़‌‌‌‌-ए-फ़हमाइश-ए-दुश्नाम हमीं हैं

हक़ नक़्द-ए-मसर्रत का अगर है तो हमीं को
कुछ नब्ज़-शनास-ए-ग़म-ओ-आलाम हमीं हैं

जिस तक कोई कोई अभी पहुँचा ही नहीं है
वो मशअल-ए-बे-नूर सर-ए-शाम हमीं हैं

इंकार ही सर-चश्मा-ए-ईमान-ओ-यकीं है
अब रोज़-ए-जज़ा लाएक़-ए-इनआ'म हमीं हैं

कलियों से दम-ए-सुब्ह जो 'ज़ैदी' ने सुना था
फ़ितरत का वो ना-गुफ़्ता सा पैग़ाम हमीं हैं