बरहनगी का मुदावा कोई लिबास न था
ख़ुद अपने ज़हर का तिरयाक़ मेरे पास न था
सुलग रहा हूँ ख़ुद अपनी ही आग में कब से
ये मश्ग़ला तो मिरे दर्द की असास न था
तिरी नवाज़िश-ए-पैहम के नक़्श दिल में रहे
मैं बे-ख़बर सही पर ऐसा ना-सिपास न था
हर एक शेर था मेरा मिरे ख़याल का अक्स
कोई किताब न थी कोई इक़्तिबास न था
बिखर गए थे सो ख़ुद को समेट भी लेते
कि इस यक़ीन में शामिल मिरा क़यास न था
ग़ज़ल
बरहनगी का मुदावा कोई लिबास न था
असरार ज़ैदी