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बराबर ख़्वाब से चेहरों की हिजरत देखते रहना | शाही शायरी
barabar KHwab se chehron ki hijrat dekhte rahna

ग़ज़ल

बराबर ख़्वाब से चेहरों की हिजरत देखते रहना

मुसव्विर सब्ज़वारी

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बराबर ख़्वाब से चेहरों की हिजरत देखते रहना
गुज़र चुकने पे भी वो शाम-ए-रहलत देखते रहना

धनक की बारिशें बरफ़ाब शहरों पर नहीं होतीं
यहाँ फूलों का रस्ता उम्र भर मत देखते रहना

किताबों की तहों में ढूँढना ना-दीदा अश्या का
पलट कर फिर कोई ख़ाली इबारत देखते रहना

हुजूम-ए-शहर के सन्नाटे में गुम-सुम वो टीला सा
उसी को आते जाते बे-ज़रूरत देखते रहना

जिसे मैं छू नहीं सकता दिखाई क्यूँ वो देता है
फ़रिश्तों जैसी बस मेरी इबादत देखते रहना

'मुसव्विर' कुछ न कहने का ये दुख भी सख़्त ज़ालिम है
तलब कर लेगी लफ़्ज़ों की अदालत देखते रहना