EN اردو
बंक की जल्वा-गरी पर ग़श हूँ | शाही शायरी
bank ki jalwa-gari par ghash hun

ग़ज़ल

बंक की जल्वा-गरी पर ग़श हूँ

इंशा अल्लाह ख़ान

;

बंक की जल्वा-गरी पर ग़श हूँ
या'नी उस सब्ज़ परी पर ग़श हूँ

गरचे दुनिया के हुनर हैं लेकिन
अपने मैं बे-हुनरी पर ग़श हूँ

बर्क़ की तरह न तड़पूँ क्यूँकर
तेरी पोशाक-ए-ज़री पर ग़श हूँ

उस की पिशवाज़ की से लाई बास
उस की मैं गोद-भरी पर ग़श हूँ

ग़श नसीम-ए-सहरी है मुझ पर
मैं नसीम-ए-सहरी पर ग़श हूँ

उसे कुछ हो न सका 'इंशा' मैं
आह की बे-असरी पर ग़श हूँ