बने हुए हैं फ़सील-ए-नज़र दर-ओ-दीवार
हर इक तरफ़ दर-ओ-दीवार पर दर-ओ-दीवार
मुझे भी दर-ब-दरी में ही लुत्फ़ आता है
मिरी बला से फ़राहम न कर दर-ओ-दीवार
हमारे घर में तो मीनार बन गई हर ईंट
छतों की हद में उठाते हैं सर दर-ओ-दीवार
घटा का क्या है बरस कर निकल गई आगे
यहाँ सिसकते रहे रात भर दर-ओ-दीवार
हमारे राज़ में शामिल रहे पड़ोसी भी
इसी लिए तो हैं दीवार-ओ-दर दर-ओ-दीवार
ख़बर न फैलने पाए कि जा रहा है कोई
नहीं तो सर पे उठा लेंगे घर दर-ओ-दीवार
तिरा बदन तो सलामत है ऐ 'मुज़फ़्फ़र' फिर
ये किस के ख़ून से हैं तर-ब-तर दर-ओ-दीवार
ग़ज़ल
बने हुए हैं फ़सील-ए-नज़र दर-ओ-दीवार
मुज़फ़्फ़र हनफ़ी