बने-बनाए से रस्तों का सिलसिला निकला
नया सफ़र भी बहुत ही गुरेज़-पा निकला
न जाने किस की हमें उम्र भर तलाश रही
जिसे क़रीब से देखा वो दूसरा निकला
हमें तो रास न आई किसी की महफ़िल भी
कोई ख़ुदा कोई हम-साया-ए-ख़ुदा निकला
हज़ार तरह की मय पी हज़ार तरह के ज़हर
न प्यास ही बुझी अपनी न हौसला निकला
हमारे पास से गुज़री थी एक परछाईं
पुकारा हम ने तो सदियों का फ़ासला निकला
अब अपने-आप को ढूँडें कहाँ कहाँ जा कर
अदम से ता-ब-अदम अपना नक़्श-ए-पा निकला
ग़ज़ल
बने-बनाए से रस्तों का सिलसिला निकला
ख़लील-उर-रहमान आज़मी