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बंदा-ए-इश्क़ हूँ जुज़ यार मुझे काम नहीं | शाही शायरी
banda-e-ishq hun juz yar mujhe kaam nahin

ग़ज़ल

बंदा-ए-इश्क़ हूँ जुज़ यार मुझे काम नहीं

शाह आसिम

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बंदा-ए-इश्क़ हूँ जुज़ यार मुझे काम नहीं
ख़्वाहिश-ए-नंग नहीं कुछ हवस-ए-नाम नहीं

मज़हब-ए-इश्क़ का ये ढंग निराला देखा
कुछ वहाँ तज़्किरा-ए-कुफ़्र और इस्लाम नहीं

इश्क़ को जानता हूँ दीन-ओ-ईमान अपना
ग़ैर माशूक़ परस्ती मुझे कुछ काम नहीं

काबा-ए-जाँ है मिरा कूचा-ए-जानाँ यारो
सज्दा-ए-दैर-ओ-हरम से मुझे कुछ काम नहीं

सैद-ए-मुर्ग़-ए-दिल-ए-आशिक़ लिए ऐ दिलबर
ख़ाल है दाना और ये ज़ुल्फ़ कम अज़ दाम नहीं

दर्द-ए-दिल ने हमें क्या क्या है चखाई लज़्ज़त
इस लिए दिल को मिरे ख़्वाहिश-ए-आराम नहीं

मज़हब-ए-इश्क़ में आ कर के हमीं ऐ 'आसिम'
शाह ख़ादिम के सिवा और से कुछ काम नहीं