EN اردو
बना रहा था कोई आब ओ ख़ाक से कुछ और | शाही शायरी
bana raha tha koi aab o KHak se kuchh aur

ग़ज़ल

बना रहा था कोई आब ओ ख़ाक से कुछ और

दिलावर अली आज़र

;

बना रहा था कोई आब ओ ख़ाक से कुछ और
उठा लिया फिर अचानक ही चाक से कुछ और

जला के बैठ गया मैं वो आख़िरी तस्वीर
तो नक़्श उभरने लगे उस की राख से कुछ और

बस अपने आप से कुछ देर हम-कलाम रहो
नहीं है फ़ाएदा हिज्र ओ फ़िराक़ से कुछ और

हमारी फ़ाल हमारे ही हाथ से निकली
बना है ज़ाइचा पर इत्तिफ़ाक़ से कुछ और

वही सितारा-नुमा इक चराग़ है 'आज़र'
मिरा ख़याल था निकलेगा ताक़ से कुछ और