बना के तल्ख़ हक़ाएक़ से पर निकलती है
चटान में भी अगर हो ख़बर निकलती है
मिरी तरफ़ से इजाज़त है देख लो ख़ुद ही
कहीं जुदाई की सूरत अगर निकलती है
वो तीरगी है कि ख़ुद राह ढूँडने के लिए
चराग़ हाथ में ले कर सहर निकलती है
ग़ुरूर इतना भी क्या अपनी शान शौकत पर
ये ख़ुश-गुमानी तो कटवा के सर निकलती है
मिरे ख़याल में तस्ख़ीर-ए-शश-जिहत के लिए
तिरी गली से कहीं रहगुज़र निकलती है
न रात सुनती है 'राहत' फ़ुग़ान-ए-सैद यहाँ
न धूप देख के ज़र्फ़-ए-शजर निकलती है
ग़ज़ल
बना के तल्ख़ हक़ाएक़ से पर निकलती है
राहत सरहदी