बना हुस्न-ए-तकल्लुम हुस्न-ए-ज़न आहिस्ता आहिस्ता
बहर-सूरत खुला इक कम-सुख़न आहिस्ता आहिस्ता
मुसाफ़िर राह में है शाम गहरी होती जाती है
सुलगता है तिरी यादों का बन आहिस्ता आहिस्ता
धुआँ दिल से उठे चेहरे तक आए नूर हो जाए
बड़ी मुश्किल से आता है ये फ़न आहिस्ता आहिस्ता
अभी तो संग-ए-तिफ़्लाँ का हदफ़ बनना है कूचों में
कि रास आता है ये दीवाना-पन आहिस्ता आहिस्ता
अभी तो इम्तिहान-ए-आबला-पा है बयाबाँ में
बनेंगे कुंज-ए-गुल दश्त-ओ-दमन आहिस्ता आहिस्ता
अभी क्यूँकर कहूँ ज़ेर-ए-नक़ाब-ए-सुरमगीं क्या है
बदलता है ज़माने का चलन आहिस्ता आहिस्ता
में अहल-ए-अंजुमन की ख़ल्वत-ए-दिल का मुग़न्नी हूँ
मुझे पहचान लेगी अंजुमन आहिस्ता आहिस्ता
दिल-ए-हर-संग गोया शम्-ए-मेहराब-ए-तमन्ना है
असर करती है ज़र्ब-ए-कोहकन आहिस्ता आहिस्ता
किसी काफ़िर की शोख़ी ने कहलवाई ग़ज़ल मुझ से
खुलेगा 'शाज़' अब रंग-ए-सुख़न आहिस्ता आहिस्ता
ग़ज़ल
बना हुस्न-ए-तकल्लुम हुस्न-ए-ज़न आहिस्ता आहिस्ता
शाज़ तमकनत