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बना दे और भी कुछ दूर की सदा मुझ को | शाही शायरी
bana de aur bhi kuchh dur ki sada mujhko

ग़ज़ल

बना दे और भी कुछ दूर की सदा मुझ को

मनमोहन तल्ख़

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बना दे और भी कुछ दूर की सदा मुझ को
ये जितने फ़ासले मुमकिन हैं सब दिखा मुझ को

हर एक चेहरे को पहचानने की कोशिश ने
हर एक चेहरे की उलझन बना दिया मुझ को

थका थका सा तसलसुल बना के दरिया का
ये फैलता हुआ सहरा न अब बना मुझ को

मैं सिलसिला हूँ सदाओं के टूट जाने का
तो सोच कर ही दोबारा सदा बना मुझ को

तू मेरी बात है तो गूँज जा मिरे अंदर
मैं तेरी चुप हूँ तो फिर तोड़ कर दिखा मुझ को

मैं सुन रहा हूँ हर एक चोट में सदा अपनी
रुके न हाथ तिरा तोड़ता ही जा मुझ को

मेरा ख़याल है घर के बहुत क़रीब हूँ मैं
हर एक लम्हा न यूँ वर्ना देखता मुझ को

ये लोग क्या हैं किसी का कोई वजूद भी है
ये आर-पार नज़र आ रहा है क्या मुझ को

अजब थकन हूँ किसी से न कुछ भी कहने की
अजब तरह ये पड़ा ख़ुद से वास्ता मुझ को

मैं अपने ध्यान से ख़ुद ही उतर गया था तल्ख़
सभी ग़लत हैं किसी ने नहीं सुना मुझ को