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बम फूटने लगें कि समुंदर उछल पड़े | शाही शायरी
bam phuTne lagen ki samundar uchhal paDe

ग़ज़ल

बम फूटने लगें कि समुंदर उछल पड़े

मयंक अवस्थी

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बम फूटने लगें कि समुंदर उछल पड़े
कब ज़िंदगी पे कौन बवंडर उछल पड़े

दुश्मन मिरी शिकस्त पे मुँह खोल कर हँसे
और दोस्त अपने जिस्म के अंदर उछल पड़े

गहराइयाँ सिमट के बिखरने लगीं तमाम
इक चाँद क्या दिखा कि समुंदर उछल पड़े

मत छेड़िए हमारे चराग़-ए-ख़ुलूस को
शायद कोई शरार ही मुँह पर उछल पड़े

घोड़ों की बे-लगाम छलाँगों को देख कर
बछड़े किसी नकेल के दम पर उछल पड़े

गहरी नहीं थी और मचलती थी बे-सबब
ऐसी नदी मिली तो शनावर उछल पड़े

यूँ मुँह न फेरना कि सभी दोस्त हैं यहाँ
कब और कहाँ से पीठ पे ख़ंजर उछल पड़े