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बला से ख़ल्क़ हो बे-दर्द इश्क़ क्या ग़म है | शाही शायरी
bala se KHalq ho be-dard ishq kya gham hai

ग़ज़ल

बला से ख़ल्क़ हो बे-दर्द इश्क़ क्या ग़म है

इश्क़ औरंगाबादी

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बला से ख़ल्क़ हो बे-दर्द इश्क़ क्या ग़म है
जराहत-ए-दिल-ए-महज़ूँ का दर्द मरहम है

जहाँ में ग़म से कुइ इशरत-कदा नहीं ख़ाली
है शम्अ बज़्म में गिर्यां चमन में शबनम है

हूँ आब-दीदा मैं नर्गिस पे देख कर शबनम
कि आह चश्म की सूरत भी अश्क से नम है

रखे है लुत्फ़ शबिस्तान-ए-बज़्म-ए-मुनइम लेक
स्वाद-ए-शाम-ए-ग़रीबाँ का और आलम है

गुलों का चाक गरेबाँ हैं बुलबुलें नालाँ
चमन में 'इश्क़' ख़ुदा जाने किस का मातम है