बला से ख़ल्क़ हो बे-दर्द इश्क़ क्या ग़म है
जराहत-ए-दिल-ए-महज़ूँ का दर्द मरहम है
जहाँ में ग़म से कुइ इशरत-कदा नहीं ख़ाली
है शम्अ बज़्म में गिर्यां चमन में शबनम है
हूँ आब-दीदा मैं नर्गिस पे देख कर शबनम
कि आह चश्म की सूरत भी अश्क से नम है
रखे है लुत्फ़ शबिस्तान-ए-बज़्म-ए-मुनइम लेक
स्वाद-ए-शाम-ए-ग़रीबाँ का और आलम है
गुलों का चाक गरेबाँ हैं बुलबुलें नालाँ
चमन में 'इश्क़' ख़ुदा जाने किस का मातम है
ग़ज़ल
बला से ख़ल्क़ हो बे-दर्द इश्क़ क्या ग़म है
इश्क़ औरंगाबादी