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बला की धूप थी सारी फ़ज़ा दहकती रही | शाही शायरी
bala ki dhup thi sari faza dahakti rahi

ग़ज़ल

बला की धूप थी सारी फ़ज़ा दहकती रही

मक़बूल आमिर

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बला की धूप थी सारी फ़ज़ा दहकती रही
मगर वफ़ा की कली शाख़ पर चटकती रही

बिछड़ते वक़्त में उस को दिलासा देता रहा
वो बे-ज़बाँ थी मुझे बेबसी से तकती रही

उसे ख़बर थी कि हम अहल-ए-दश्त प्यासे हैं
जभी तो मौज किनारों से सर पटकती रही

अलम-नसीब तो रो रो के सो गए आख़िर
मगर मलूल हुआ रात भर सिसकती रही

दम-ए-जुदाई वो मर्यम सलीब की मानिंद
मिरे गले से बड़ी देर तक लटकती रही

मैं ऐसी राह पे निकला कि मेरी ख़ुश-बख़्ती
तमाम उम्र मिरी खोज में भटकती रही