बला की धूप में ऐसे भी जिस्म जलता रहा
बदन का साया जो अपने सिरों से ढलता रहा
ढली न शाम-ए-अलम जब तलक सहर न हुई
बुझे चराग़ की लौ से धुआँ निकलता रहा
मिली न मंज़िल-ए-मक़्सूद इस लिए भी मुझे
मैं हर क़दम पे नया रास्ता बदलता रहा
जहाँ भी आँख चुराई सफ़र में सूरज ने
कोई सितारा मिरे साथ साथ चलता रहा
बस एक उम्र गँवा कर क़ुबूलियत की 'नबील'
तमाम उम्र मैं हाथों को अपने मलता रहा
ग़ज़ल
बला की धूप में ऐसे भी जिस्म जलता रहा
नबील अहमद नबील