EN اردو
बला ही इश्क़ लेकिन हर बशर क़ाबिल नहीं होता | शाही शायरी
bala hi ishq lekin har bashar qabil nahin hota

ग़ज़ल

बला ही इश्क़ लेकिन हर बशर क़ाबिल नहीं होता

साक़िब लखनवी

;

बला ही इश्क़ लेकिन हर बशर क़ाबिल नहीं होता
बहुत पहलू हैं ऐसे भी कि जिन में दिल नहीं होता

निशान-ए-बे-निशानी मिट नहीं सकता क़यामत तक
ये नक़्श-ए-हक़ जफ़ा-ए-दहर से बातिल नहीं होता

जहाँ में ना-उमीदी के सिवा उम्मीद क्या मा'नी
सभी कहते हैं लेकिन दिल मिरा क़ाइल नहीं होता

तड़पना किस का देखोगे जो ज़िंदा हों तो सब कुछ हो
बला-ए-इश्क़ का मारा कभी बिस्मिल नहीं होता

सदाएँ दे रहा हूँ मुद्दतों से अहल-ए-मरक़द को
सभी सोते हैं लेकिन यूँ कोई ग़ाफ़िल नहीं होता

सरिश्क-ए-ग़म की हद शाम-ओ-सहर में मिल नहीं सकती
उमँडते हैं जो ये दरिया तो फिर साहिल नहीं होता

दुआ दे इश्क़ को ऐ ज़ुल्म तू भी ज़ेब-ए-पहलू है
वगर्ना कैसा ही पैकाँ हो लेकिन दिल नहीं होता

फ़रामोशी है लेकिन याद रखता है तिरे दर को
दर-ए-अग़्यार पर 'साक़िब' कभी साइल नहीं होता