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बजाए हम-सफ़री इतना राब्ता है बहुत | शाही शायरी
bajae ham-safri itna rabta hai bahut

ग़ज़ल

बजाए हम-सफ़री इतना राब्ता है बहुत

राजेन्द्र मनचंदा बानी

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बजाए हम-सफ़री इतना राब्ता है बहुत
कि मेरे हक़ में तिरी बे-ज़रर दुआ है बहुत

थी पाँव में कोई ज़ंजीर बच गए वर्ना
रम-ए-हवा का तमाशा यहाँ रहा है बहुत

ये मोड़ काट के मंज़िल का अक्स देखोगे
इसी जगह मगर इम्कान-ए-हादसा है बहुत

बस एक चीख़ ही यूँ तो हमें अदा कर दे
मुआमला हुनर-ए-हर्फ़ का जुदा है बहुत

मिरी ख़ुशी का वो क्या क्या ख़याल रखता है
कि जैसे मेरी तबीअत से आश्ना है बहुत

तमाम उम्र जिन्हें हम ने टूट कर चाहा
हमारे हाथों उन्हीं पर सितम हुआ है बहुत

ज़रा छुआ था कि बस पेड़ आ गिरा मुझ पर
कहाँ ख़बर थी कि अंदर से खोखला है बहुत

कोई खड़ा है मिरी तरह भीड़ में तन्हा
नज़र बचा के मिरी सम्त देखता है बहुत

ये एहतियात-कदा है कड़े उसूलों का
ज़रा से नक़्स पे 'बानी' यहाँ सज़ा है बहुत