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बजाए गुल मुझे तोहफ़ा दिया बबूलों का | शाही शायरी
bajae gul mujhe tohfa diya babulon ka

ग़ज़ल

बजाए गुल मुझे तोहफ़ा दिया बबूलों का

कबीर अजमल

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बजाए गुल मुझे तोहफ़ा दिया बबूलों का
मैं मुन्हरिफ़ तो नहीं था तिरे उसूलों का

इज़ाला कैसे करेगा वो अपनी भूलों का
कि जिस के ख़ून में नश्शा नहीं उसूलों का

नफ़स का क़र्ज़ चुकाना भी कोई खेल नहीं
वो जान जाएगा अंजाम अपनी भूलों का

नई तलाश के ये मीर-ए-कारवाँ होंगे
बनाते जाओ यूँ ही सिलसिला बगूलों का

ये आड़ी तिरछी लकीरें बदल नहीं सकतीं
हज़ार वास्ता देते रहो उसूलों का

तमाम फ़लसफ़ा-ए-काएनात खुल जाते
कहाँ से टूट गया सिलसिला नुज़ूलों का

इन्हीं से मुझ को मिला अज़्म-ए-ज़िंदगी 'अजमल'
मैं जानता हूँ कि क्या है मक़ाम फूलों का