बजा कि पाबंद-ए-कूचा-ए-नाज़ हम हुए थे
यहीं से पर ले के महव-ए-परवाज़ हम हुए थे
सुख़न का आग़ाज़ पहले बोसे की ताज़गी था
अज़ल-रुबा साअ'तों के हमराज़ हम हुए थे
यहाँ जो इक गूँज दाएरे सी बना रही है
इसी ख़मोशी में संग-ए-आवाज़ हम हुए थे
रवाँ-दवाँ इंकिशाफ़-दर-इंकिशाफ़ थे हम
जो मुड़ के देखा तो सेग़ा-ए-राज़ हम हुए थे
उफ़ुक़ था रौशन न मुर्तइश पानियों पे किरनें
ग़लत जज़ीरों पे लंगर-अंदाज़ हम हुए थे
कुरेदते फिर रहे हैं अब रेत साहिलों की
वही जो ग़ोता-ज़न-ए-यम-राज़ हम हुए थे
जुमूद का एक दौर गुज़रा था फ़िक्र-ओ-फ़न पर
तवील अर्से के बा'द फिर 'साज़' हम हुए थे
ग़ज़ल
बजा कि पाबंद-ए-कूचा-ए-नाज़ हम हुए थे
अब्दुल अहद साज़