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बजा कि नक़्श-ए-कफ़-ए-पा पे सर भी रखना है | शाही शायरी
baja ki naqsh-e-kaf-e-pa pe sar bhi rakhna hai

ग़ज़ल

बजा कि नक़्श-ए-कफ़-ए-पा पे सर भी रखना है

वक़ार मानवी

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बजा कि नक़्श-ए-कफ़-ए-पा पे सर भी रखना है
मगर बुलंद मक़ाम-ए-नज़र भी रखना है

सख़ावत ऐसी दिखाई कि घर लुटा बैठे
न सोचा ये भी कि कुछ अपने घर भी रखना है

हों ज़ख़्म ज़ख़्म कहाँ तक मैं चारागर से कहूँ
इधर भी रखना है मरहम उधर भी रखना है

ये जब्र देखो कि रहना भी है सर-ए-मक़्तल
हर एक वार भी सहना है सर भी रखना है

रह-ए-हयात में थकना भी है यक़ीनी सा
फिर अपने आप को वक़्फ़-ए-सफ़र भी रखना है

इलाही ख़ैर कि तूफ़ान-ए-बाद-ओ-बाराँ में
हमें बचाना है ख़ुद को भी घर में रखना है

ये क्या सितम है कि सय्याद हम असीरों को
रिहा भी करना है बे-बाल-ओ-पर भी रखना है

किसे बताएँ कि ग़म उस की बे-नियाज़ी का
वो ग़म है जिस से उसे बे-ख़बर भी रखना है

मुसाफ़िरो अभी मंज़िल के हैं पड़ाव बहुत
इसी हिसाब से ज़ाद-ए-सफ़र भी रखना है

ये उज़्र है कि उन्हें नींद आने लगती है
बयान-ए-क़िस्सा-ए-ग़म मुख़्तसर भी रखना है

'वक़ार' तुम सुख़न-ओ-आगही से गुज़रे हो
तुम्ही को पास-ए-'वक़ार'-ए-हुनर भी रखना है