बैठे तो पास हैं पर आँख उठा सकते नहीं
जी लगा है प अभी हाथ लगा सकते नहीं
दूर से देख वो लब काटते हैं अपने होंठ
है अभी पास-ए-अदब होंठ हिला सकते नहीं
तकते हैं उस क़द ओ रुख़्सार को हसरत से और आह
भेंच कर ख़ूब सा छाती से लगा सकते नहीं
दिल तो इन पाँव पे लोटे है मिरा वक़्त-ए-ख़िराम
शब को दुज़दी से भी पर उन को दबा सकते नहीं
चोर से रात खड़े रहते हैं इस दर से लगे
पर जो मतलूब है वो जिंस चुरा सकते नहीं
रीझते उन की अदाओं पे हैं क्या क्या लेकिन
मारे अंदेशे के गर्दन भी हिला सकते नहीं
देख रहते हैं वो आईना-ए-ज़ानू उस का
पर किसी शक्ल से ज़ानू को भिड़ा सकते नहीं
क़ाएदे क्या हमें मालूम नहीं उल्फ़त के
बे-कम-ओ-कास्त मगर उन को पढ़ा सकते नहीं
चिपके तक रहते हैं रंग उस का भबूका सा हम
आह पर दिल की लगी अपनी बुझा सकते नहीं
क्या ग़ज़ब है कि वही बोले तो बोले अज़-ख़ुद
हम उन्हें क्यूँ कि बुलावें कि बुला सकते नहीं
गरचे हम-ख़ाना हैं 'जुरअत' प हमारे ऐसे
बख़्त सोए कि कहीं साथ सुला सकते नहीं
ग़ज़ल
बैठे तो पास हैं पर आँख उठा सकते नहीं
जुरअत क़लंदर बख़्श