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बैठे बैठे जो तबीअ'त मिरी घबराई है | शाही शायरी
baiThe baiThe jo tabiat meri ghabrai hai

ग़ज़ल

बैठे बैठे जो तबीअ'त मिरी घबराई है

मीनू बख़्शी

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बैठे बैठे जो तबीअ'त मिरी घबराई है
और शिद्दत से मुझे याद तिरी आई है

इस से बिछ्ड़ुंगी तो ज़िंदा नहीं रह पाऊँगी
मेरी मूनिस मिरी हमराज़ ये तन्हाई है

जुस्तुजू अब है मसर्रत की न तो ग़म की तलाश
बे-हिसी मुझ को कहाँ ले के चली आई है

डूब कर उन में न उभरा है न उभरेगा कोई
झील सी आँखों में पाताल सी गहराई है

मुझ में हर सम्त ज़िया-बार हैं उन की यादें
चाँदनी आज मिरे दिल में उतर आई है

मुझ से वो राह में कतरा के निकल जाने लगे
मैं ने भी उन से न मिलने की क़सम खाई है

शब-ए-अफ़्साना मुनव्वर है न अब शाम-ए-ग़ज़ल
अंजुमन है न कहीं अंजुमन-आराई है