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बैठा हूँ सियह-बख़्त ओ मुकद्दर इसी घर में | शाही शायरी
baiTha hun siyah-baKHt o mukaddar isi ghar mein

ग़ज़ल

बैठा हूँ सियह-बख़्त ओ मुकद्दर इसी घर में

मुस्तफ़ा ज़ैदी

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बैठा हूँ सियह-बख़्त ओ मुकद्दर इसी घर में
उतरा था मिरा माह-ए-मुनव्वर इसी घर में

ऐ साँस की ख़ुशबू लब-ओ-आरिज़ के पसीने
खोला था मिरे दोस्त ने बिस्तर इसी घर में

चटकी थीं इसी कुंज में उस होंट की कलियाँ
महके थे वो औक़ात-ए-मयस्सर इसी घर में

अफ़्साना-दर-अफ़्साना थी मुड़ती हुई सीढ़ी
अशआर-दर-अशआर था हर दर इसी घर में

होती थी हरीफ़ाना भी हर बात पे इक बात
रहती थी रक़ीबाना भी अक्सर इसी घर में

शर्मिंदा हुआ था यहीं पिंदार-ए-इमारत
चमका था फ़क़ीरों का मुक़द्दर इसी घर में

वो जिन के दर-ए-नाज़ पे झुकता था ज़माना
आते थे बड़ी दूर से चल कर इसी घर में