EN اردو
बैठ जा कर सर-ए-मिंबर वाइज़ | शाही शायरी
baiTh ja kar sar-e-mimbar waiz

ग़ज़ल

बैठ जा कर सर-ए-मिंबर वाइज़

जलील मानिकपूरी

;

बैठ जा कर सर-ए-मिंबर वाइज़
हो गया तू तो मिरे सर वाइज़

मय तो जाएज़ नहीं ये जाएज़ है
रोज़ खाता है मिरा सर वाइज़

बंद करता है दर-ए-तौबा क्यूँ
खोल कर वाज़ का दफ़्तर वाइज़

वाइज़ों की मैं करूँ क्या तारीफ़
घर में मय-ख़्वार हैं बाहर वाइज़

मय-कशों ही के लिए है ये बात
जो है दिल में वही लब पर वाइज़

देख किस रंग से उट्ठी है घटा
तह कर अब वाज़ का दफ़्तर वाइज़

किस तरह पीते हैं पीने वाले
देख लेना लब-ए-कौसर वाइज़

मौत भी आती है तो हीले से
आ गया रिंदों में क्यूँकर वाइज़

सख़्तियाँ रिंदों पे करते करते
अक़्ल पर पड़ गए पत्थर वाइज़

आतिश-ए-तर का जो पड़ जाए मज़ा
फूँक दे वाज़ का दफ़्तर वाइज़

रिंद आपे से जो बाहर हैं तो हों
तू न हो जामे से बाहर वाइज़

शीशा-ए-दिल का ख़ुदा हाफ़िज़ है
तेरी हर बात है पत्थर वाइज़

ज़िक्र-ए-मय वाज़ में जब आता है
झूमता है सर-ए-मिंबर वाइज़

ले के आँखों से लगाता साग़र
पढ़ जो लेता ख़त-ए-साग़र वाइज़

महफ़िल-ए-वाज़ में क्यूँ जाऊँ 'जलील'
हैं मुझे शीशा-ओ-साग़र वाइज़