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बैर दुनिया से क़बीले से लड़ाई लेते | शाही शायरी
bair duniya se qabile se laDai lete

ग़ज़ल

बैर दुनिया से क़बीले से लड़ाई लेते

राहत इंदौरी

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बैर दुनिया से क़बीले से लड़ाई लेते
एक सच के लिए किस किस से बुराई लेते

आबले अपने ही अँगारों के ताज़ा हैं अभी
लोग क्यूँ आग हथेली पे पराई लेते

बर्फ़ की तरह दिसम्बर का सफ़र होता है
हम उसे साथ न लेते तो रज़ाई लेते

कितना मानूस सा हमदर्दों का ये दर्द रहा
इश्क़ कुछ रोग नहीं था जो दवाई लेते

चाँद रातों में हमें डसता है दिन में सूरज
शर्म आती है अंधेरों से कमाई लेते

तुम ने जो तोड़ दिए ख़्वाब हम उन के बदले
कोई क़ीमत कभी लेते तो ख़ुदाई लेते