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बहुत वाक़िफ़ हैं लब-ए-आह-ओ-फ़ुग़ाँ से | शाही शायरी
bahut waqif hain lab-e-ah-o-fughan se

ग़ज़ल

बहुत वाक़िफ़ हैं लब-ए-आह-ओ-फ़ुग़ाँ से

गोर बचन सिंह दयाल मग़मूम

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बहुत वाक़िफ़ हैं लब-ए-आह-ओ-फ़ुग़ाँ से
तबस्सुम है कहाँ लाऊँ कहाँ से

तसव्वुर भूल जाता है ख़ुदा को
ये टकराया है जब आह-ओ-फ़ुग़ाँ से

यक़ीं होने को है मायूसियों पर
तवक़्क़ो उठ रही है आसमाँ से

मुक़फ़्फ़ल हो ज़बाँ जिस बे-नवा की
वो क्यूँ कर क्या कहे अपनी ज़बाँ से

कहे कुछ भी मगर पुर-सोज़ होगा
हमें उम्मीद है अपनी ज़बाँ से

इलाही ख़ैर मेरे आशियाँ की
धुआँ सा उठ रहा है गुलिस्ताँ से

कहीं धोका न हो 'मग़मूम' ये भी
नज़र आते हैं कुछ धुँदले निशाँ से