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बहुत से सैल-ए-हवादिस की ज़द पे बह गए हैं | शाही शायरी
bahut se sail-e-hawadis ki zad pe bah gae hain

ग़ज़ल

बहुत से सैल-ए-हवादिस की ज़द पे बह गए हैं

तहसीन फ़िराक़ी

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बहुत से सैल-ए-हवादिस की ज़द पे बह गए हैं
ये चंद एक दरख़्तान-ए-सब्ज़ रह गए हैं

मकीन दश्त के फ़ील-फ़ौर दश्त छोड़ गए
कि शेर-ज़ाद ख़मोशी से वार सह गए हैं

ज़मीन बाँझ है नाज़ाद हो गए खलियान
अगरचे सुब्ह ओ मसा बार बार गह गए हैं

परिंदगाँ! तुम्हें कुछ भी ख़बर न हो पाई
दरख़्त ढे गए अम्बार-ए-आब बह गए हैं

बहार अब के जो गुज़री तो फिर न आएगी
बिछड़ने वाले बिछड़ते समय ये कह गए हैं