बहुत पहुँचे तो उन के काकुल-ओ-रुख़्सार तक पहुँचे
मगर आशिक़ न अब तक इश्क़ के मेआ'र तक पहुँचे
दबाईं धड़कनें आँखों को झुठलाया गया बरसों
बड़ी मुश्किल से वो इंकार से इक़रार तक पहुँचे
अभी तो रौशनी उलझी है तारीकी के तूफ़ाँ से
न जाने कब तलक अपने दर-ओ-दीवार तक पहुँचे
छुड़ाओ गर छुड़ा सकते हो दामान-ए-वफ़ा हम से
मगर ऐसा न हो ये बात भी अग़्यार तक पहुँचे
ज़बाँ की आरज़ू में ठोकरें खाते हुए नग़्मे
रुबाब-ओ-चंग से तलवार की झंकार तक पहुँचे
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ग़ज़ल
बहुत पहुँचे तो उन के काकुल-ओ-रुख़्सार तक पहुँचे
मुश्ताक़ नक़वी