बहुत दुश्वार है अब आईने से गुफ़्तुगू करना
सज़ा से कम नहीं है ख़ुद को अपने रू-ब-रू करना
अजब सीमाबियत है इन दिनों अपनी तबीअत में
कि जिस ने बात की हँस कर उसी की आरज़ू करना
इबादत के लिए ततहीर-ए-दिल की भी ज़रूरत है
वज़ू के बाद फिर अश्क-ए-नदामत से वज़ू करना
ये वस्फ़-ए-ख़ास है कुछ आप से बा-वस्फ़ लोगों का
हमें आता नहीं है आप को लम्हे में तू करना
तिरी फ़ितरत में यूँ मुसबत इशारे ढूँडता हूँ मैं
किसी सहरा को जैसे चाहता हूँ आबजू करना
ग़ज़ल
बहुत दुश्वार है अब आईने से गुफ़्तुगू करना
राग़िब अख़्तर