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बहुत दिनों में कहीं रास्ते बदलते थे | शाही शायरी
bahut dinon mein kahin raste badalte the

ग़ज़ल

बहुत दिनों में कहीं रास्ते बदलते थे

अतीक़ुल्लाह

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बहुत दिनों में कहीं रास्ते बदलते थे
वो लोग कैसे थे जो साथ साथ चलते थे

वो कार-गह न रही और न वो सिफ़ाल रही
ख़ुदा के दौर में क्या आदमी निकलते थे

ज़रा से रिज़्क़ में बरकत भी कितनी होती थी
और इक चराग़ से कितने चराग़ जलते थे

गुज़ारने की वो सूरत क़याम-ए-ख़्वाब में थी
जहाँ से और कई रास्ते निकलते थे

फ़लक पे अपना बसेरा था और हम अक्सर
फ़लक के आख़िरी कोने पे जा निकलते थे