बहुत दिन दर्स-ए-उल्फ़त में कटे हैं
मोहब्बत के सबक़ बरसों रटे हैं
जुनूँ में हो गया है अब ये दर्जा
कि है हालत रदी कपड़े फटे हैं
हरम से वापसी पर मेरी दावत
हुई मय-ख़ाने में मय-कश डटे हैं
बहुत पीर-ए-मुग़ाँ ज़ी-हौसला है
शराब-ए-नाब के साग़र लुटे हैं
रियाज़ ओ ज़ोहद के जितने थे धब्बे
वो सारे नक़्श-ए-बातिल अब मिटे हैं
तबर्रुक थे मिरी तौबा के टुकड़े
बजाए नक़्ल महफ़िल में बटे हैं
अलम के दर्द के हसरत के ग़म के
मज़े जितने हैं सारे चटपटे हैं
नहीं बे-वजह वाइज़ रोनी सूरत
ये हज़रत आज रिंदों में पिटे हैं
हुए जारूब-कश उस दर के 'परवीं'
कि सारे गर्द मिट्टी में अटे हैं
ग़ज़ल
बहुत दिन दर्स-ए-उल्फ़त में कटे हैं
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़