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बहसें छिड़ी हुई हैं हयात-ओ-ममात की | शाही शायरी
bahsen chhiDi hui hain hayat-o-mamat ki

ग़ज़ल

बहसें छिड़ी हुई हैं हयात-ओ-ममात की

फ़िराक़ गोरखपुरी

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बहसें छिड़ी हुई हैं हयात-ओ-ममात की
सौ बात बन गई है 'फ़िराक़' एक बात की

साज़-नवा-ए-दर्द हिजाबात-ए-दहर में
कितनी दुखी हुई हैं रगें काएनात की

रख ली जिन्हों ने कशमकश-ए-ज़िंदगी की लाज
बे-दर्दियाँ न पूछिए उन से हयात की

यूँ फ़र्त-ए-बे-ख़ुदी से मोहब्बत में जान दे
तुझ को भी कुछ ख़बर न हो इस वारदात की

है इश्क़ उस तबस्सुम-ए-जाँ-बख़्श का शहीद
रंगीनियाँ लिए है जो सुब्ह-ए-हयात की

छेड़ा है दर्द-ए-इश्क़ ने तार-ए-रग-ए-अदम
सूरत पकड़ चली हैं नवाएँ हयात की

शाम-ए-अबद को जल्वा-ए-सुब्ह-ए-बहार दे
रूदाद छेड़ ज़िंदगी-ए-बे-सबात की

उस बज़्म-ए-बे-ख़ुदी में वजूद-ए-अदम कहाँ
चलती नहीं है साँस हयात-ओ-ममात की

सौ दर्द इक तबस्सुम-ए-पिन्हाँ में बंद हैं
तस्वीर हूँ 'फ़िराक़' नशात-ए-हयात की