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बहर-ए-हस्ती में सोहबत-ए-अहबाब | शाही शायरी
bahr-e-hasti mein sohbat-e-ahbab

ग़ज़ल

बहर-ए-हस्ती में सोहबत-ए-अहबाब

नज़ीर अकबराबादी

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बहर-ए-हस्ती में सोहबत-ए-अहबाब
यूँ है जैसे बरु-ए-आब-ए-हबाब

गर्दिश-ए-आसमाँ में हम क्या हैं
पर-ए-काहे मियाना-ए-गर्दाब

बादा-ए-नाब क्या है ख़ून-ए-जिगर
ज़र्दी-ए-रंग है शब-ए-महताब

जिस को रक़्स-ओ-सुरूद कहते हैं
वो भी है इक हवा-ए-ख़ाना-ख़राब

उम्र कहते हैं जिस को वो क्या है
मिस्ल-ए-तहरीर मौज-ए-नक़्श-बर-आब

जिस्म क्या रूह की है जौला-निगाह
रूह क्या इक सवार-ए-पा-ब-रिकाब

हुस्न और इश्क़ क्या हैं ये भी हैं
ख़तफ़ा-ए-बर्क़-ओ-क़तरा-ए-सीमाब

ज़िंदगानी-ओ-मर्ग भी क्या हैं
एक मिस्ल-ए-ख़याल-ओ-दीगर-ए-ख़्वाब

फ़ुर्सत-ए-उम्र क़तरा-ए-शबनम
वस्ल-ए-महबूब गौहर-ए-नायाब

क्यूँ न इशरत दो-चंद हो जो है
यार मह-चेहरा और शब-ए-महताब

सब किताबों के खुल गए मा'नी
जब से देखी 'नज़ीर' दिल की किताब