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ब-हर-लम्हा पिघलता जा रहा हूँ | शाही शायरी
ba-har-lamha pighalta ja raha hun

ग़ज़ल

ब-हर-लम्हा पिघलता जा रहा हूँ

सय्यद मेराज जामी

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ब-हर-लम्हा पिघलता जा रहा हूँ
नए साँचे में ढलता जा रहा हूँ

मिरी मंज़िल मिरे पेश-ए-नज़र है
मगर रस्ते बदलता जा रहा हूँ

मिरे अशआर मेरा आइना है
मैं अपना फ़न उगलता जा रहा हूँ

कोई सूरत निकालो ज़िंदगी की
कि अब ग़म से बहलता जा रहा हूँ

सफ़र तो ज़िंदगी की शर्त ठहरा
न चलने पर भी चलता जा रहा हूँ

सहारा दे रही हैं लग़्ज़िशें अब
कि 'जामी' मैं सँभलता जा रहा हूँ