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बहारों से ख़िज़ाँ तक यूँही सैर-ए-गुलिस्ताँ कर के | शाही शायरी
bahaaron se KHizan tak yunhi sair-e-gulistan kar ke

ग़ज़ल

बहारों से ख़िज़ाँ तक यूँही सैर-ए-गुलिस्ताँ कर के

आजिज़ मातवी

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बहारों से ख़िज़ाँ तक यूँही सैर-ए-गुलिस्ताँ कर के
रफ़ू करते रहे हम जेब-ओ-दामाँ धज्जियाँ कर के

मिलेगा क्या तुझे सय्याद मुझ को बे-ज़बाँ कर के
सुकून-ए-क़ल्ब मिलता है मुझे आह-ओ-फ़ुग़ाँ कर के

चमन को रौशनी दी नज़्र-ए-आतिश आशियाँ कर के
किया ये तजरबा हम ने घर अपना राएगाँ कर के

हक़ीक़त में करम तुम ने किया है हक़-शनासों पर
हर इक को वाक़िफ़-ए-रस्म-ए-जबीन-ओ-आस्ताँ कर के

उठा पाए न हम लुत्फ़-ए-बहाराँ मौसम-ए-गुल में
कहाँ गुम हो गई पर्वाज़ क़ैद-ए-आशियाँ कर के

अब ऐसी ज़िंदगी से मौत आ जाती तो बेहतर था
हुई तज़हीक अपनी दास्तान-ए-दिल बयाँ कर के

अगर तफ़्सील से कहता तो वो शायद समझ जाते
मैं अब पछता रहा हूँ इख़्तिसार-ए-दास्ताँ कर के

भटकते रहते यूँही और न पाते उम्र-भर मंज़िल
बड़ा एहसाँ किया तुम ने शरीक-ए-कारवाँ कर के

समझ में आ गई उन की ख़स-ओ-ख़ाशाक की अज़्मत
गई हैं बिजलियाँ आख़िर तवाफ़-ए-आशियाँ कर के

ज़हे मश्क़-ए-तसव्वुर हम उन्हें देखा ही करते हैं
छुपें चाहे जहाँ वो पर्दा-हा-ए-दरमियाँ कर के

समुंदर फिर हिलोरे लेगा तहज़ीब-ओ-तमद्दुन का
ज़रा देखो तो 'आजिज़' शामिल-ए-उर्दू-ज़बाँ कर के