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बहारें और वो रंगीं नज़ारे याद आते हैं | शाही शायरी
bahaaren aur wo rangin nazare yaad aate hain

ग़ज़ल

बहारें और वो रंगीं नज़ारे याद आते हैं

राम कृष्ण मुज़्तर

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बहारें और वो रंगीं नज़ारे याद आते हैं
वो दिलकश वादियाँ वो माह-पारे याद आते हैं

मोहब्बत के वो जाँ-परवर सहारे याद आते हैं
तिरी आग़ोश में जो दिन गुज़ारे याद आते हैं

वो मौसम वो समाँ वो दिन वो सुब्ह-ओ-शाम वो रातें
वो हँसते नाचते गाते सितारे याद आते हैं

वो झीलें वो चमन वो ग़ुंचा-ओ-गुल और वो सब्ज़ा
मिरे दिल को वो मंज़र प्यारे प्यारे याद आते हैं

मसर्रत-बख़्श था कितना तरन्नुम आबशारों का
वो लहरें वो सुकूँ-परवर किनारे याद आते हैं

वो जल्वे हुस्न के वो शाहिद-ए-रंगीं की रा'नाई
शबाब-ए-कैफ़-ओ-मस्ती के वो धारे याद आते हैं

वो ज़ुल्फ़ें वो अदाएँ और वो रंग-ए-लब-ओ-आरिज़
ग़ज़ालीं अँखड़ियों के वो इशारे याद आते हैं

नशात-ए-रूह ऐ मेरी बहार-ए-ज़िंदगी मुझ को
तिरे पहलू में जो लम्हे गुज़ारे याद आते हैं