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बहार कौन सी तुझ में जमाल-ए-यार न थी | शाही शायरी
bahaar kaun si tujh mein jamal-e-yar na thi

ग़ज़ल

बहार कौन सी तुझ में जमाल-ए-यार न थी

ज़ेब ग़ौरी

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बहार कौन सी तुझ में जमाल-ए-यार न थी
मुशाहिदा था तिरा सैर-ए-लाला-ज़ार न थी

महकती ज़ुल्फ़ों से ख़ोशे गुलों के छूट गिरे
कुछ और जैसे कि गुंजाइश-ए-बहार न थी

हम अपने दिल ही को रोते थे लेकिन इस के लिए
जहाँ में कौन सी शय थी जो बे-क़रार न थी

तलाश एक बहाना था ख़ाक उड़ाने का
पता चला कि हमें जुस्तुजू-ए-यार न थी

झुका है क़दमों में तेरे वो सर कि जिस के लिए
कोई जगह भी मुनासिब सिवाए दार न थी

न जाने 'ज़ेब' दिल-ए-ज़ार क्यूँ तड़प उट्ठा
हवा-ए-सुब्ह थी ख़ुशबू-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार न थी