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बहार का रूप भी निगाहों में इक फ़रेब-ए-बहार सा है | शाही शायरी
bahaar ka rup bhi nigahon mein ek fareb-e-bahaar sa hai

ग़ज़ल

बहार का रूप भी निगाहों में इक फ़रेब-ए-बहार सा है

निहाल सेवहारवी

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बहार का रूप भी निगाहों में इक फ़रेब-ए-बहार सा है
हयात में दिलकशी नहीं है हयात में इंतिशार सा है

ज़माना क्या देखिए दिखाए न जाने क्या इंक़लाब आए
फ़लक के तेवर में ख़शमगीं से ज़मीं के दिल में ग़ुबार सा है

कमाल-ए-दीवानगी तो जब है रहे न एहसास-ए-जैब-ओ-दामन
अगर है एहसास-ए-जैब-ओ-दामन तो फिर जुनूँ होशियार सा है

कुछ आज ऐसी ही जी पे गुज़री दबी हुई थी जो चोट उभरी
जिसे सँभाले हुआ था दिल में वो नाला बे-इख़्तियार सा है

अभी उमीद-ओ-वफ़ा न तोड़ो सियासत-ए-दिलबरी न छोड़ो
कभी जो फ़िर्दौस-ए-रंग-ओ-बू था वो एक उजड़ा दयार सा है

'निहाल' को बे पिए है मस्ती है मुफ़्त इल्ज़ाम-ए-मय-परस्ती
है आम इस शहर में रिवायत ये शख़्स कुछ बादा-ख़्वार सा है