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बहार-ए-गुलशन-ए-हस्ती है क़ाएम शादी-ओ-ग़म से | शाही शायरी
bahaar-e-gulshan-e-hasti hai qaem shadi-o-gham se

ग़ज़ल

बहार-ए-गुलशन-ए-हस्ती है क़ाएम शादी-ओ-ग़म से

निहाल लखनवी

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बहार-ए-गुलशन-ए-हस्ती है क़ाएम शादी-ओ-ग़म से
जो गुल ख़ंदाँ है गुलशन में तो गिर्यां शम-ए-महफ़िल में

जहाँ माशूक़ हो आशिक़ वहीं उस का पहुँचता है
चमन में जाए परवाना न बुलबुल आए महफ़िल में

'निहाल' उस के करम से पार बेड़ा होगा तेरा भी
बचाया नूह को तूफ़ाँ से जिस ने ऐन मुश्किल में