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बहार-ए-गुल से अब दौर-ए-ख़िज़ाँ तक | शाही शायरी
bahaar-e-gul se ab daur-e-KHizan tak

ग़ज़ल

बहार-ए-गुल से अब दौर-ए-ख़िज़ाँ तक

सत्यपाल जाँबाज़

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बहार-ए-गुल से अब दौर-ए-ख़िज़ाँ तक
कहाँ से बात आ पहुँची कहाँ तक

कहाँ जाएँगे अब आख़िर यहाँ से
जो आ पहुँचे तुम्हारे आस्ताँ तक

डुबो देगा हमें ख़ुद नाख़ुदा ही
न था इस का कभी वहम-ओ-गुमाँ तक

रफ़ू-गर आ के भी अब क्या सिएगा
नहीं दामन की बाक़ी धज्जियाँ तक

ग़ज़ब है जल गया दिल का नशेमन
नहीं उट्ठा मगर इस से धुआँ तक

पता देते हैं किस की अज़्मतों का
मह-ओ-अंजुम से राह-ए-कहकशाँ तक

तिरा 'जाँबाज़' हो कर डगमगाए
भला दार-ओ-रसन के इम्तिहाँ तक